भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टुकड़ों में बँटी ज़िन्दगी हर शख़्स जी रहा है / पल्लवी मिश्रा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:59, 29 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पल्लवी मिश्रा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टुकड़ों में बँटी ज़िन्दगी हर शख़्स जी रहा है,
है चाक गिरेबाँ जिसका, दामन औरों के सी रहा है।

जिसकी खुशी की खातिर हमने खुद को भी है मिटाया,
मुझे बर्बाद करने वालों में वह शख्स भी रहा है।

हद-ए-उम्मीद की कफस में, दम तोड़ दिया मुहब्बत ने,
उल्फत के हर फसाने का अंजाम यही रहा है।

अपनों के दिये जख़्मों पर जिसने लगाया है मरहम,
बेहतर मेरी निगाहों में वह अजनबी रहा है।

जश्न-ए-फतह मनाने को किसी ने दरिया-ए-मय बहाया
कोई शिकस्त भुलाने को तन्हा ही पी रहा है।

दौलत के जोड़-तोड़ में ताउम्र मशगूल रहा वह इतना
कि मरते समय भी हाथों में खाता-बही रहा है।

वो कहते जिसे खुदा हैं, है मेरी नजर में पत्थर
अब आप ही बताएँ - कौन सही रहा है?