"टूटी हुई बिखरी हुई पढ़ाते हुए / गिरिराज किराडू" के अवतरणों में अंतर
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एक प्रतिनियुक्ति विशेषज्ञ की हैसियत से | एक प्रतिनियुक्ति विशेषज्ञ की हैसियत से | ||
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(मानो उनके कवियों का कवि जाने को चरितार्थ करते हुए) | (मानो उनके कवियों का कवि जाने को चरितार्थ करते हुए) | ||
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लगभग तीस देहाती लड़कियों के सम्मुख | लगभग तीस देहाती लड़कियों के सम्मुख | ||
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होते ही लगा शमशेर जितना अजनबी कोई और नहीं मेरे लिए | होते ही लगा शमशेर जितना अजनबी कोई और नहीं मेरे लिए | ||
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मैंने कहा कि उनकी कविता का देशकाल एक बच्चे का मन है | मैंने कहा कि उनकी कविता का देशकाल एक बच्चे का मन है | ||
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कि उनकी कविता का खयालखाना है जिसके बाहर खड़े | कि उनकी कविता का खयालखाना है जिसके बाहर खड़े | ||
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वे उसे ऐसे देख रहे हैं जैसे यह देखना भी एक खयाल हो | वे उसे ऐसे देख रहे हैं जैसे यह देखना भी एक खयाल हो | ||
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कि वे उम्मीद के अज़ाब को ऐसे लिखते हैं कि अज़ाब खुद उम्मीद हो जाता है | कि वे उम्मीद के अज़ाब को ऐसे लिखते हैं कि अज़ाब खुद उम्मीद हो जाता है | ||
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कि उनके यहां पांच वस्तुओं की एक संज्ञा है और पांच संज्ञाएं एक ही वस्तु के लिए हैं | कि उनके यहां पांच वस्तुओं की एक संज्ञा है और पांच संज्ञाएं एक ही वस्तु के लिए हैं | ||
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अपने सारे कहे से शर्मिन्दा | अपने सारे कहे से शर्मिन्दा | ||
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इन उक्तियों की गर्द से बने पर्दे के पीछे | इन उक्तियों की गर्द से बने पर्दे के पीछे | ||
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कहीं लड़खड़ाकर गायब होते हुए मैंने पूछा | कहीं लड़खड़ाकर गायब होते हुए मैंने पूछा | ||
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जब आपको कविता समझने में कोई परेशानी तो नहीं ? | जब आपको कविता समझने में कोई परेशानी तो नहीं ? | ||
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उनक जवाब मुझे कहीं बहुत दूर से आता हुआ सुनाई दिया | उनक जवाब मुझे कहीं बहुत दूर से आता हुआ सुनाई दिया | ||
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जब मैं जैसे तैसे कक्षा से बाहर आ चुका था और शमशेर से और दूर हो चुका था। | जब मैं जैसे तैसे कक्षा से बाहर आ चुका था और शमशेर से और दूर हो चुका था। | ||
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+ | (प्रथम प्रकाशनः वागर्थ,भारतीय भाषा परिषद,कोलकाता) |
15:14, 7 सितम्बर 2008 के समय का अवतरण
एक प्रतिनियुक्ति विशेषज्ञ की हैसियत से
(मानो उनके कवियों का कवि जाने को चरितार्थ करते हुए)
लगभग तीस देहाती लड़कियों के सम्मुख
होते ही लगा शमशेर जितना अजनबी कोई और नहीं मेरे लिए
मैंने कहा कि उनकी कविता का देशकाल एक बच्चे का मन है
कि उनके मन का क्षेत्रफल पूरी सृष्टि के क्षेत्रफल जितना है
कि उनकी कविता का खयालखाना है जिसके बाहर खड़े
वे उसे ऐसे देख रहे हैं जैसे यह देखना भी एक खयाल हो
कि वे उम्मीद के अज़ाब को ऐसे लिखते हैं कि अज़ाब खुद उम्मीद हो जाता है
कि उनके यहां पांच वस्तुओं की एक संज्ञा है और पांच संज्ञाएं एक ही वस्तु के लिए हैं
अपने सारे कहे से शर्मिन्दा
इन उक्तियों की गर्द से बने पर्दे के पीछे
कहीं लड़खड़ाकर गायब होते हुए मैंने पूछा
जब आपको कविता समझने में कोई परेशानी तो नहीं ?
उनक जवाब मुझे कहीं बहुत दूर से आता हुआ सुनाई दिया
जब मैं जैसे तैसे कक्षा से बाहर आ चुका था और शमशेर से और दूर हो चुका था।
(प्रथम प्रकाशनः वागर्थ,भारतीय भाषा परिषद,कोलकाता)