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टूटे स्टूल, सिंहासन और पत्नी के बारे में... / ओबायद आकाश / भास्कर चौधुरी

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इस बार ईद में उस तरह का कोई आनन्द नहीं !
यही वजह है कि मेरी पत्नी
बंग्ला छोड़
चीनी व्यंजन रांध रही है
और
अकेले ही बैठी रसोईघर में
काँप रही है...

इधर गैस चूल्हे पर
पतीले में पानी चढ़ा हुआ है
एक प्याला मधु, कूटा हुआ अदरक
और
नींबू का रस तैयार है
गरारे करने के लिए लौंग-पानी,
उबलते पानी से उठती भाप भी तैयार है...
ये चीज़ें
एक तरह से धुएँ का सिंहासन बनकर
खड़ी हैं
इन चीज़ों ने उलट दिए हैं
सारे चीनी सामान...

मुझे देखते ही मेरी
मायूस पत्नी ने
टूटा पड़ा स्टूल उठाकर
बेहद तीखेपन से कहा —
'ये सब बदल नहीं सकते,
बैठते ही चरमराने लगता है
मेरा कुर्ता, मेरा दुपट्टा फाड़ देता है
ऊपर से हमेशा गिरने का डर बना रहता है'...

मैं पत्नी को शान्त करते हुए कहता हूँ —
'अच्छा ठीक है
कम से कम आज के दिन तो...'
मेरी ज़ुबान से बात छीनकर
और भी अधिक कंझाते हुए
कहा उसने —
'तुम्हें पता है
हमारे संसार में
इस तरह की गाँजाखोरी
मुझे बिल्कुल भी पसन्द नहीं
मैं अच्छी तरह जानती हूँ
तुम्हें केवल ख़ुद से मतलब है
तुम्हीं ने कहा था एक दिन —
'सुनो! एक से होते हैं
टूटे हुए स्टूल
और सिंहासन के चरित्र
हर समय गिर पड़ने का भय सताता है !'

इस बार पकड़ी गई तुम्हारी चालाकी
तुम मुझे टूटे हुए स्टूल से
गिराना चाहते हो
ताकि टूट जाएँ मेरे हाथ पाँव
तुम चाहते हो कि मैं
सिंहासन से उतार दिए गए
राजा की तरह हो जाऊँ
दुनिया का हतभागी और अकेला
बनाना चाहते हो मुझे तुम

और मैं जानती हूँ
इस मौक़े पर
अकेले-अकेले तुम
अपने मन माफ़िक पेड़ दर पेड़
पोस्टर झुलाना चाहते हो —
'आहा कितनी निस्संगता !'
'और कितना एकाकीपन !'
'हे कविता !'

बांग्ला से अनुवाद : भास्कर चौधुरी