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ट्रेन का सफर / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

इस उस से
बातें करते
घुटने हटाते
रखते, जमुहाई
लेते या भीड़ को
निरखते
जाने कितनी स्थितियों
से गुजरे,
अपरिचित कितने ही
परिचय वृत्त में
सिमटे...बिसरे,
बीहड़ वन-उपवन
बियाबान, जंगल
पठार, लम्बे समतल
ऊबड़-खाबड़
बस्ती, श्मशान
चट्टानों और
पर्वतों-नदियों के
वक्षों पर
भागता भटकता रहा
सफर।
और
आज गति के पहिये
अन्धकारमय महागुफा में
आकर जकड़ गये हैं,
कहीं रोशनी नहीं
अँधेरा भीतर-बाहर
बुझ गये सभी प्रकाश-बल्ब,
मन्द रक्त-संचरण
और ऊबासाँसी
लेकिन
लक्ष्यहीन डिब्बे भोंडी भड़
यहाँ भी
लगा रही है ठहाके,
इंजन के मुँह से आवाज नहीं कढ़ती
पर यह बजा रही है
अश्लील सीटियाँ;
मृत्यु-त्रास-भय भी नहीं आयत्त करता
इनके निमित्त, कोई अर्थ गूढ़,
ये सबके सब परम भाग्यशाली हैं
किसी महाकवि के मूढ़।