Last modified on 24 नवम्बर 2017, at 14:56

ठगी जाती हो तुम / परितोष कुमार 'पीयूष'

पहले वे परखते हैं
तुम्हारे भोलेपन को
तौलते हैं तुम्हारी अल्हड़ता
नाँपते हैं तुम्हारे भीतर
संवेदनाओं की गहराई

फिर रचते हैं प्रेम का ढ़ोंग
फेंकते है पाशा साजिश का
दिखाते हैं तुम्हें
आसमानी सुनहरे सपने

जबतक तुम जान पाती हो
उनका सच उनकी साजिश
वहशी नीयत के बारे में
वे तुम्हारी इजाजत से
टटोलते हुए
तुम्हारे वक्षों की उभारें
रौंद चुके होते हैं
तुम्हारी देह

उतार चुके होतें हैं
अपने जिस्म की गर्मी
अपने यौवन का खुमार
मिटा चुके होतें हैं
अपने गुप्तांगों की भूख

और इस प्रकार तुम
हर बार ठगी जाती हो
अपने ही समाज में
अपनी ही संस्कृति में
अपने ही प्रेम में
अपने ही जैसे
तमाम शक्लों के बीच