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ठण्ड / नवीन जोशी ’नवेंदु’

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बर्फ़वारी के दिनों मैं भी
कहाँ रह गई है अब
पहले जैसी ठण्ड ,

अभ्यस्त हो गए हैं लोग
बारहमासी
ठन्डे रिश्ते नातों की
ठण्ड में,
बिल्ली की तरह
चूल्हे की
बुझी राख में
अकेले दुबक कर भी,

सिमटे हुए हैं लोग
अकड़ गए हैं उनके जज्बात
घुड़क रहे हैं जिस-तिस से
पागल हुए कुत्तों की तरह,

किस भाग्यवान को मिल रहा है अब-
माँ का लाड़
कौन सह रहा
पिता की डाँट
कौन मान रहा
सयानों की सलाह,

क्या भाई-क्या बहन
क्या बेटा-क्या बेटी
क्या पति-क्या पत्नी
क्या बड़ा-क्या छोटा भाई
जहाँ देखो वहीं दिखावा
वहीँ ठण्ड
बस
बारहमासी ठण्ड.

मूल कुमाउनीं पाठ

ह्यूंना्क अरड़ी दिनों में लै
कां रैगो आब
पैलियौक ज अरड़

म्येसी ग्येईं मैंस
बारमासी
अरड़ी
रिस्त-ना्तना्क
अरड़ में-
इकलै
बिराउक चार
चुला्क गल्यूटन में लै-

कुकड़ी रयीं मैंस
लकड़ी ग्येईं उना्र जजबात
अकड़ नयीं जै-तैं हुं
हड़की कुकुरों चार।

को् भा्गि कैं मिलणौ आब
इजक लाड़
को् थांणौ आब
बाबुकि नड़क
को् मानणौ आब
सयांणौकि सला।

कि भै-कि बैंणि
कि च्यल-कि च्येलि
कि धुलौ-कि स्यैंणि
कि दा्द-कि भुलि
कि ब्वारि-कि बोजि
जैं चाओ-वैं ढण्ट
वैं अरड़
बारमासी अरड़।