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ठाम-ठाम जीवनबिहीन दीन दीसै सबे / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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ठाम-ठाम जीवनबिहीन दीन दीसै सबे
चलति चबाई-बात तापत घनी रहै ।
कहै रतनाकर न चैन दिन-रैन परै
सूखी पत-छिन भई तरुनि अनी रहै ॥
जारयौ अंग अब तौ बिधाता है इहां कौ भयौ
तातैं ताहि जारन की ठसक ठनी रहै ।
बगर-बगर बृषभान के नगर हित
भीषम-प्रभाव ऋतु ग्रीष्म बनी रहै ॥88॥