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ठिकाना / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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जहाँ भी पहुँचा जा सकता था
चल रही होती अगर

जंगल
खेत
नाला
मैदान
या नदी किनारे

पाठशाला
कारख़ाना
पुस्कालय
अस्पताल
न्यायालय
समाधिस्थल
या सुदूर कहीं का अज्ञात गाँव

देखा जा सकता था
उड़ रही चिडि़या
बहता पानी
खेल रहे बालक
आने-जाने वालों को आर-पार उतार के मौन
ठहरा हुआ पुल

सड़क में चलते हुए
हुआ जा सकता था भावुक
मक्का भून रही औरत
भीख माँग रहे बच्चे
और पैरों से चित्र बना रहा
दोनों हाथ-विहिन कलाकार को देखकर
दिये जा सकते थे कुछ रुपये
या किया जा सकता था कुछ उद्धार

देखी जा सकती थी पूरी दुनिया
अलग–अलग रंग, रूप और आयाम में

लेकिन होती हूँ हर वक्त जल्दबाजी में
कूदना है अनन्त चक्रव्यूह के ऊपर
लड़ना है जीवन की अनाम क्रूरता से
और खरीदना है
चरम उपभोक्तावादी बाज़ार से
कुछ सुन्दर किताबों के अक्षर
गरम कपड़े
जूते और खिलौने

बुनना है ख़ुद के सपने उधेड़कर
नन्हे-मुन्ने आँखों के लिए
नए–नए सपने

न पहुँचकर कहीं दूसरी जगह
मैं लौटी हूँ वही ठिकाने पर
जहाँ मेरे छोटे–छोटे बच्चे हैं
मेरी राह ताकते हुए
शाम तक ओसारे में इन्तज़ार करते।