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डर लगता है.. / शैलेन्द्र शान्त

कुछ कहते हुए
कुछ भी कहते हुए
डर लगता है
बढ़ जाती हैं धड़कने
जुबां से निकल जाती है
जब दिल की बात

सुनते-सुनते शोर
बढ़ जाता है सिरदर्द
कानों को डर लगता है
जब घुसती जाती हैं धमकियाँ
एतराज के एवज में

जगमग उजाले में छिपे
अन्धेरे से डर लगता है
आँखों को डर लगता है
दिख जाता है जब कभी
कोई नंगा सच।