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डर / नेहा नरुका

अक्सर आधी रात को मैं डरावने ख़्वाब देखती हूँ
मैं देखती हूँ मेरी सारी पोशाकें खो गई हैं
और मैं कोने में खड़ी हूँ नंगी
मैं देखती हूँ कई निगाहों के सामने खुद को घुटते हुए।

मैं देखती हूँ मेरी गाड़ी छूट रही है
और मैं बेइंतहा भाग रही हूँ उसके पीछेे।
मैं देखती हूँ मेरी सारी किताबें
फटी पड़ी हैं ज़मीन पर
और उनसे निकल कर उनके लेखक
लड़ रहे हैं ,चींख रहे हैं, तड़प रहे हैं
पर उन्हें कोई देख नहीं पा रहा।

मैं देखती हूँ मेरे घर की छत, सीढियां और मेरा कमरा
ख़ून से लथपथ पड़ा है
मैं घबराकर बाहर आती हूँ और बाहर भी मुझे आसमान से ख़ून रिसता हुआ दिखता है
अक्सर आधी रात को मुझे डरावने ख़्वाब आते हैं
और मैं सो नहीं पाती ।

मैं दिनभर खुद को सुनाती हूँ हौसलों के किस्से
दिल को खूबसूरती से भर देने वाला मखमली संगीत
पर जैसे-जैसे दिन ढलता है
ये हौसले पस्त पड़ते जाते हैं
और रात बढ़ते-बढ़ते डर जमा कर लेता है क़ब्ज़ा मेरे पूरे वजूद पर
मैं बस मर ही रही होती हूँ तभी
मेरी खिड़की से रोशनी दस्तक देती है मेरी आँखों में
और मेरा ख़्वाब टूट जाता है
अक्सर...