Last modified on 11 फ़रवरी 2009, at 22:20

डर / भागवतशरण झा 'अनिमेष'

गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:20, 11 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भागवतशरण झा 'अनिमेष' |संग्रह= }} <Poem> बेटी फिर आएगी ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बेटी फिर आएगी
डर लगता है

बेटी फिर जाएगी
डर लगता है

वसन्त की तरह आना होता है उसका
और हेमन्त की तरह जाना

राह है बीहड़, कंटकित, दुर्गम
हिंस्र पशुओं से भरा
मोड़ है अजाना

फिर भी बेटियों को पड़ता है आना
बेटियों को पड़ता है जाना
तितलियों की तरह
हँसी-ख़ुशी निकलती हैं बेटियाँ
फुलसुँघनी की तरह मँडराती हैं
दिल धड़कने लगता है जनक का
जब समय पर नहीं लौटती है मैथिली या वैदेही

बेटियाँ हैं या गोकुल की गोधूलि में गुम गौएँ
कहीं भी जाएँ ब्रज को बिसार नहीं पाती हैं।

जब तक हैं बेटियाँ
भय का पर्याय है शहर
फिर कैसे न कहें कि डर लगता है

चलो, मन को बना लें वृन्दावन
घेर कर मार डालें इस डर को
अन्तरिक्ष तक जाएँ और सकुशल लौट आएँ बेटियाँ
अप्रासंगिक हो जाए पुराना तकियाक़लाम--
डर लगता है
डर लगता है।