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डर / रणविजय सिंह सत्‍यकेतु

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दूर की कौड़ी कहते हैं
कामगारों का बुलंदियाँ हासिल करना
काम करनेवाले हाथों के बूते मलाई मारनेवाले,
सत्ता और शक्ति के सारे स्रोत उनकी पकड़ में हैं
उनके दायरे बड़े
और आभा अजस्र सूत्रमयी है, उनका मानना है
वे रोक सकते हैं पक्षियों को चहचहाने
बकरियों को मिमियाने से
खुला छोड़ सकते हैं घड़ियालों, साँड़ों को
खुली कीमत देकर;

भयानक अस्त्र-शस्त्रोंवाले
सहस्र हाथों की मारक जुगलबंदी करती हैं
उनकी चिकनी-चुपड़ी शक्लें
होंठों से निकले जंगल विधान,
खेतों-खलिहानों पर आँखें गड़ाए पटवारी
खानों-घाटियों में जमे कारिन्दे
थानों-कचहरियों में डटीं कुर्सियाँ
हैं उनकी खनखनाती जेब की हद में, उनका दावा है
इसलिए नैतिकता उनके ठेंगे से
ईमानदारी उनकी जूती तले

हालाँकि शक है उन्हें दिखावे की व्यस्तताओं
और चकाचैंध में उलझी अपनी उनींदी आँखों पर
कि शातिर दिमाग और
कठोर हृदय के साथ तारतम्य नहीं बिठा पाई, तो
कहीं मुट्ठी भिंचे हाथ आसमान को न छू लें
क्योंकि पूरी नींद से जगे होते हैं वे
ताजा और तप्त लहू से लबालब

जो ज़िन्दगी से मोह तो रखते हैं
मगर मौत से डरते नहीं
और शायद...यही होती है बुलंदी ।