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डायना / निर्मला गर्ग

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वह बार-बार साधारणता की ओर मुड़ती । बार-बार
उसे ख़ास की तरफ ठेला जाता । उसके चारों ओर
पुरानी भव्य दीवारें थीं । उनमें कोई खिड़की नहीं थी
सिर्फ बुर्जियाँ थीं । वहाँ से झाँकने पर सर चकराता था ।
कमरों में बासीपन के अलावा और कई तरह की बू शामिल थी ।
एक दिन यह सब लाँघकर वह बाहर चली आई । हवा
और धूल की तरह सब ओर फैल गई

वह एक मुस्कुराहट थी टहनी और पत्ती समेत । सुबह का
धुला हुआ बरामदा थी । उसे प्रेम चाहिए था अपनी
कमज़ोरियों और कमियों के बावजूद । जैसी वह थी वैसी
होने के बावजूद । उसमें प्रेम था । उसे उलीचना चाहती
थी अपने पर औरों पर । उलीचती भी थी कच्चा
पक्का जो तरीका आता था

दुःख और तनाव अक्सर उसे घेर लेते । वह मृत्यु की
तरफ भागती । मृत्यु उसे लौटा देती । बाद में यह सब
एक खेल में बदल गया ।

                         
 रचनाकाल : 1997