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डायरी के पन्नों में सोई हुई साँसे / राजेन्द्र गौतम

डायरी के पन्नों में सोई हुई साँसे
महकती हैं रात भर मेरे साथ

एक-एक शब्द
शरद कि पूर्णिमा में राधा बन जाता है
हर अर्थ थिरकता है श्याम-सा

साँझ होते ही जगाता हूँ मैं
उन शब्द-आकृतियों को
वे दीप-सी जल उठती हैं
सोख लेती हैं अँधेरों के सैलाब

तब कितनी बार मैं सैलाब के उतार में
रेत पर बिखरी
एक-एक रेखा को पढ़ता हूँ
सच, कितनी बार!

पर पूछो मत आशय मुझसे
मैं हर आशय को
काँपते होंठों से पी जाना चाहता हूँ
तब सभी क्षण डूब जाते हैं मुझ में
... साँझ होते ही जगाता हूँ मैं
उन शब्द-आकृतियों को
वे दीप-सी जल उठती हैं !