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डिंगुरी / सुशील मानव

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उसका प्रेम एक हादसा था
दुनिया की ज़ानिब ज़हर थी उसकी चाहत
कहाँ कुछ सोचा था उसने
विजातीय पुरुष का हाथ थामे संगम नहाते वक़्त
प्रेमी की आँखों में, अपनी नंगी देह देखने की चाहत में
कहाँ सोचा था उसने कपड़े उतारते वक्त
कि उसकी जाति भी हो जाएगी नंगी उसकी देह के साथ
फूल आया डिंगुरी का प्रेम
सोखकर पुरुषत्व
जैसै फूल आती है चपौरी
पीकर आषाढ़
जैसे फूल आते हैं स्तन
पाकर ममत्व का एहसास
उम्र की आरर डार से टूट
भहरा पड़ी कुँवारी डिंगुरी
कारन कर-करके विलाप रही उसकी माँ
निमियहिया
रांड़ कहाँ जला आई अपने जोबना के अलाव ?
कउने मुआ के ओढ़ा आई आपन देंह ?
कउने देहरी लागी रे तोर ठेकान ?
कहाँ विलाय आई जात के मरजाद ?
डिंगुरी के बढ़ते पेट से यूँ
फूटै लगा जाति का घुटना
बच्चा न हो वो
जाति के गले में बँधा डडैना हो ज्यों
जाति की आँखें नहीं होती अलबत्ता एक नाक होती है
छोटी या बड़ी
सुग्गा के चोंच सी नुकीली या फुलौरीदार गोल-मटोल
गई रात जाति की पंचायत में, चर्चा नाक की ही हुई सबसे अधिक
जिसके चलते सूँघ लिया था पंचायत ने डिंगुरी में विजातीय पुरुष की गंध
और फिर एक रोज आखिरकार
एक नौसिखिया झोला-छाप-डॉक्टर ने
विलगा ही दिया
एक जाति से दूसरी जाति
डालकर हाथ
डिंगुरी के गर्​​भाशय में
मरकर भी ज्यों, अपने बच्चे को पोस रही हो डिंगुरी
कुछ इस तरह कनेक्ट रहा
उससे उसके बच्चे की नारा-खेड़ी
सेंवार का वो अरहर का खेते
यानि गाँव की बदनाम पाठशाला
बूचड़खाने के काम आयी
फिर नहीं फूले, अरहर के फूल
इस मौसम भी चर गये
नीलगाय !