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डेमोक्रेसी / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

हिमालय ने अपना पूरा हाथ ऊँचा कर दिया-
बड़ी ऊँची आसामी है, मातबर हस्ती है!
ताड़ के पेड़ ने भी हाथ ऊँचा कर दिया-
आखिर जीना तो है ही!
खजूर ने भी सोचा-
दोनों ठीक ही तो कहते हैं-
चट अपना भी हाथ ऊँचा कर दिया!
देवदार क्यों पीछे रहता?
और, हाँ सरों के पेड़ क्या कुछ कम हैं?
सम्राटों के बाग में रहते हैं।
उन्होंने भी सिर हिला कर अपना समर्थन दिया।
नारियल भी तो क्यों पीछे रहता?
उसमें भी तो कुछ पानी है।
ताड़ के और उसके बीच-
‘‘आँखों ही आँखों में इशारा हो गया!’’
केले का व्यक्तित्व क्या कुछ यों ही है?
उसका भी कितना तना ठोस है
उसने भी हाथ उठा दिया।
लो, घास की सुर्खरू पत्ती भी खड़ी हो गई-
बड़ी अदा से।
उसकी कौन न सुनेगा?
लो अब गिन लो हाथ-
और चाहोगे प्रमाण?
बस, अब तो?...
हो गया न सिद्ध-
सूरज बदमाश है-
कितना अन्यायी-
बेचारे अँधेरे को तबाह कर दिया!