भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ढरे रहो मो पे / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:03, 27 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना }} {{KKCatKavita}} <poem> संकर क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संकर को पोटि के पियाय दियो घोर विष
असुरन को छल से छकाय दई वारुणी
मिलि-बाँटि देवन सों आप सुधा पान कियो
मणि सै लीन्हीं अरु लक्ष्मि मन-भावनी

तेरो ही प्रताप सारे खारे समुन्दर भे
तेरी इहै बान तू सबै का नचावत है
आप छीर -सागर में आँख मूँद सोय जात
लच्छिमी से आपुने चरन पलुटावत है

नारद सो भक्त ताकेी छाती पे मूँग दरी
सभा माँझ बानर को रूप दे पठाय के
उचक-उचक रह्यो मोहिनी बरैगी मोंहिं
बापुरो खिस्यायो तोसों सबै विधि हार के

अब सो बिगार मेरो कर्यो ना हे रमापति,
तोरी सारी पोल नाहिं खोलिहौं बखान के
ढरे रहो मो पे नहीं चुप्पै रहौंगी नहिं
खरी-खरी बात बरनौंगी जानि-जानि कै

कोऊ उपाओ मेरे काज सुलटाय देओ
स्वारथ न मेरो, सामर्थ तेरो ही दियौ
ऐसो न होय तो से वीनती है मोर,
कहूँ धरो रह जाय मेरो सारो करो-धरो!

तोरा विसवास तो अब तब ही करौंगी
जब देख लिहौं के तू मेरे संग ठाड़ो आय के,
चोर रे कन्हैया,चाल खेलत जनम बीत्यो,
करौंगी सिकायत उहाँ जसुमति से जाय के!