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ढह गया वो घर जिसे पुख़्ता समझ बैठे थे हम / सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी

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ढह गया वो घर जिसे पुख़्ता समझ बैठे थे हम ।
किस यक़ीं पर आपको अपना समझ बैठे थे हम ।

दूसरी दुनिया कहीं पर है कभी सोचा न था,
आपकी दुनिया को ही दुनिया समझ बैठे थे हम ।

साथ जो चलता रहा वो दूसरा ही जिस्म था,
भूल से अपना जिसे साया समझ बैठे थे हम ।

हमज़बाँ, हमराज़, हमदम, हमसफ़र और हमनशीं,
क्या बताएँ आपको क्या-क्या समझ बैठे थे हम ।

आपकी फ़ितरत के चेहरे थे कई समझे नहीं,
जो था शाने पर उसे चेहरा समझ बैठे थे हम ।

आप ख़ुद जैसे थे वैसा ही हमें समझा किए,
ख़ुद थे जैसे आपको वैसा समझ बैठे थे हम ।

सोचते हैं अब कि कैसे बेख़ुदी में आपको,
अपनी तन्हा उम्र का रस्ता समझ बैठे थे हम ।