http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%A2%E0%A5%82%E0%A4%81%E0%A4%A2%E0%A4%BC_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&feed=atom&action=historyढूँढ़ / कुमार वीरेन्द्र - अवतरण इतिहास2024-03-28T20:45:54Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%A2%E0%A5%82%E0%A4%81%E0%A4%A2%E0%A4%BC_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&diff=262241&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2019-05-12T18:05:03Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<poem><br />
दीयर कहे कि हम दीयर<br />
जेठ कहे हमहुँ त जेठ, चल रही लू, और चार कोस <br />
बाद, मिला भी तो, एगो बबूर का पेड़, जिसकी छाँह ऐसी, आए धाह उड़ाए धाह, खड़ी कर दी <br />
साइकिल, लेकिन खाड़ रहे तब न, लागे पछुआ सँग उड़िया जाएगी, 'का हो झुनिया, ई का हो<br />
तनि अड़ान लो भाई, एक तो पँचर, ऊपर से पछुआ से प्यार', सोच रहा था<br />
पर का करती झुनिया भी, दीयर में हर कहीं कहँवा राह<br />
कटे खेतों में दौड़ाओगे, खूँटी गड़ेगी <br />
ना तो का करेगी<br />
<br />
'अरे कहँवा बाड़ू हे धनी<br />
मिल जा हो धनी, एक तो ओला पड़ा तो गेहूँ-बूँट <br />
की टूटी डाँड़, बगीचे में सब आम के मोजर झड़ गए, तू ना मिली तो कट्ठा-दु कट्ठा बिक जाएगा<br />
इससे भी ना हुआ गुजारा तो समझो कि गाँव छूटा, मिल जा हो धनी, कवन दिशा में बाड़ू चरत <br />
दिख जा हो धनी, तनिको दिख जा हो धनी', गमछी से पोंछते पसीना, पता <br />
नहीं सोच कि बुदबुदा रहा था, कि बाँध नीचे, खेत के कोन प<br />
गेहूँ का एक छोटा डंठल, अपनी बाली सँग <br />
साबूत, पछुआ से भिड़ते <br />
नज़र आया<br />
<br />
कटने से बच गया है<br />
नहीं बचता अगर कोन प न होता, कि हार्वेस्टर <br />
की लपेट में घास भी न बचे, ई तो गेहूँ का डण्ठल, और एक मुट्ठी न सही, एक ही देख इयाद आ <br />
गए बाबा, जो कहते थे, 'भँइस जब नदी नहा किनारे चरने लगे, धेयान रखना चाहिए कि भँइस <br />
तो होती सुरमताह, जवन दिशा में चरती, चरते चली जाती, मिल जाए सँगत <br />
भँइसियन की, तो फिर ढूँढ़ते रहो', और गेहूँ ने बाबा की इयाद <br />
में ऐसे इहाँ-उहाँ पहुँचा दिया, बबूर की छाँह <br />
भले न घनी, तब भी सूख गया <br />
कब तो पसीना<br />
<br />
और प्यास से <br />
चटपटा रहा मुँह, इतना तो फरहर हो ही <br />
गया, बढ़ा जा सके कवनो अउर गाँव ढूँढ़ने को भैंस, साइकिल उठा जैसे ही चलने को <br />
किया, अपने ही घूम गई आँख, और इस बार तो ऐसा, ऐसा, कि लगा कह रही हो गेहूँ <br />
की बाली, 'सुनो, फिकिर ना करो, मिल जाएगी तोहार भँइसिया'<br />
मैं भी पता नहीं मन में कि साँचो कह पड़ा<br />
'धन्यवाद, ई साथ त अमोल<br />
बहुते अमोल<br />
<br />
मिलेंगे, फिर मिलेंगे, साथी !'<br />
</poem></div>अनिल जनविजय