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ढूँढ़ / कुमार वीरेन्द्र

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दीयर कहे कि हम दीयर
जेठ कहे हमहुँ त जेठ, चल रही लू, और चार कोस
बाद, मिला भी तो, एगो बबूर का पेड़, जिसकी छाँह ऐसी, आए धाह उड़ाए धाह, खड़ी कर दी
साइकिल, लेकिन खाड़ रहे तब न, लागे पछुआ सँग उड़िया जाएगी, 'का हो झुनिया, ई का हो
तनि अड़ान लो भाई, एक तो पँचर, ऊपर से पछुआ से प्यार', सोच रहा था
पर का करती झुनिया भी, दीयर में हर कहीं कहँवा राह
कटे खेतों में दौड़ाओगे, खूँटी गड़ेगी
ना तो का करेगी

'अरे कहँवा बाड़ू हे धनी
मिल जा हो धनी, एक तो ओला पड़ा तो गेहूँ-बूँट
की टूटी डाँड़, बगीचे में सब आम के मोजर झड़ गए, तू ना मिली तो कट्ठा-दु कट्ठा बिक जाएगा
इससे भी ना हुआ गुजारा तो समझो कि गाँव छूटा, मिल जा हो धनी, कवन दिशा में बाड़ू चरत
दिख जा हो धनी, तनिको दिख जा हो धनी', गमछी से पोंछते पसीना, पता
नहीं सोच कि बुदबुदा रहा था, कि बाँध नीचे, खेत के कोन प
गेहूँ का एक छोटा डंठल, अपनी बाली सँग
साबूत, पछुआ से भिड़ते
नज़र आया

कटने से बच गया है
नहीं बचता अगर कोन प न होता, कि हार्वेस्टर
की लपेट में घास भी न बचे, ई तो गेहूँ का डण्ठल, और एक मुट्ठी न सही, एक ही देख इयाद आ
गए बाबा, जो कहते थे, 'भँइस जब नदी नहा किनारे चरने लगे, धेयान रखना चाहिए कि भँइस
तो होती सुरमताह, जवन दिशा में चरती, चरते चली जाती, मिल जाए सँगत
भँइसियन की, तो फिर ढूँढ़ते रहो', और गेहूँ ने बाबा की इयाद
में ऐसे इहाँ-उहाँ पहुँचा दिया, बबूर की छाँह
भले न घनी, तब भी सूख गया
कब तो पसीना

और प्यास से
चटपटा रहा मुँह, इतना तो फरहर हो ही
गया, बढ़ा जा सके कवनो अउर गाँव ढूँढ़ने को भैंस, साइकिल उठा जैसे ही चलने को
किया, अपने ही घूम गई आँख, और इस बार तो ऐसा, ऐसा, कि लगा कह रही हो गेहूँ
की बाली, 'सुनो, फिकिर ना करो, मिल जाएगी तोहार भँइसिया'
मैं भी पता नहीं मन में कि साँचो कह पड़ा
'धन्यवाद, ई साथ त अमोल
बहुते अमोल

मिलेंगे, फिर मिलेंगे, साथी !'