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ढूँढे़ नया मकान / कुँअर बेचैन

अधर-अधर को ढूँढ रही है

ये भोली मुस्कान

जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान


नयन-गेह से निकले आँसू

ऐसे डरे-डरे

भीड़ भरा चौराहा जैसे

कोई पार करे

मन है एक, हजारों जिसमें

बैठे हैं तूफान

जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान


साँसों के पीछे बैठे हैं

नये-नये खतरे

जैसे लगें जेब के पीछे

कई जेब-कतरे


तन-मन में रहती है हरदम

कोई नयी थकान

जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान

-- यह कविता Dr.Bhawna Kunwar द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।