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ढूँढ नहीं पाओगे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

121
शीत की धूप
पिलाती बारम्बार
मद-भरे चषक
रूप अनूप
घटे न घूँटभर
बाँटती दिन भर।
122
पैरों के निशाँ
ढूँढ नहीं पाओगे
होगा जब विहान
बाट जोहना
दूर चले जाएँगे
वापस न आएँगे।
123
फूल मुर्झाए
बचे थे पदचिह्न
अश्रुपूरित डग,
गया है कोई
अभागा इस राह
हवा रही कराह।
124
क़िस्तों में जिए
मुट्ठीभर सुख थे
थाल-बची जूठन,
शापित यक्ष!
क़िस्मत भी क्या पाई
बिछुड़े सगे सभी ।
125
सहना पड़ा-
लुटेरों के ही बीच
हमें रहना पड़ा,
कपट-रूप
मारीच बन आए
हर मोड़ व गली।
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