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ढोल / अरुण देव

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उस दिन
शाम ढलने को थी
कि कहीं से आने लगी थापों की आवाज़
कई दिनों से ढोल कुछ कह रहा था
थप-थप में रुद्धा गला
शोर में उसकी पुकार अनसुनी रह जाती

इस लकदक समय में
जहां बिक रहा है अध्यात्म और
हर खुशी के पीछे दिख जाता है कोई प्रायोजक
ढोल न जाने कब से
शोर के चुप हो जाने की राह देख रहा था
पर शोर था कि अनेक रूपों में
विचित्र ध्वनियों के साथ बढ़ता ही जाता

आज जरा सी दरार दिखी थी
वहीं से झर रहा था प्रकाश की तरह
मनुष्य की खुशी का आदिम उद्घोष
अपनी थापों में लिखता हुआ मांगलिक संदेश
जिसे लेकर हवाएं पहुंच जाती हैं घर-घर

और देखते ही देखते
धरती के नए आये मेहमान की किलकारी के साथ
जुट जाते हैं कंठ
अब ढोल और उसका विनोद
हर थाप पर और ऊंचा होता जाता नाद
सुरीला होता जाता कंठ

ढोल दुभाषिया है
किसी शाम जब जुटती हैं परित्यक्त स्त्रियां
वह करता अनुवाद उनके दुःख का
अपने छंद में

उसे याद है पंद्रहवीं शताब्दी की वह कोई रात
जब हाथ में लुकाठी लिए कबीर जैसा कोई
खड़ा हो गया था बाज़ार में
मशाल की रौशनी में चमकते उस जुलूस से आ रही थी
पुकारती हुई आवाज

क्या करे ढोल अपनी उस आवाज़ का .