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तड़ित रश्मियाँ / शैलेन्द्र चौहान

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पेड़ पर टंगी उदासी

पूर्णिमा के चाँद की तरह

झाँकती है स्पष्ट


कोहरे में छुपी
धूल में लिपटी
बारिश में भीगी
मेघ गर्जन सी


तड़ित रश्मियाँ
एकाएक छिटक जाती हैं
देश-प्रदेश के
सीले भू-भाग पर
कौंधती हैं स्मृतियाँ
बीते युगों की