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तन्हाई / कुमार राहुल

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ज़हन में इतनी तस्वीरें हैं
कि एक उकेरो
दो खींचती हैं
किरदार इतने उलझे
कि तिराहे पर खड़े हैं
न जाने कितने मज़मून

शाम दर शाम
पहलू बा पहलू
खुल रही है तस्वीर

कई ऐसे लम्हें हैं
लरज़ते हैं जिन्हें
लिखने में हाथ

ऐसे कई वाकिये हैं
जिनके जिक्र से
सिहरती है रूह

और फिर वह चेहरा
जिसकी शबाहत
हो नहीं सकती

कलम की नोंक पर
कितना कुछ ठहरा है
मगर

उतारने बैठो
तो बस
तन्हाई उतरती है...