भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तभी तुम्हें लिक्खी है पाती / भावना कुँअर

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:53, 17 जुलाई 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब ये दुनिया नहीं है भाती

तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।



खून-खराबा है गलियों में,

छिपे हुए हैं बम कलियों में,

है फटती धरती की छाती,

तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।



उज़ड़ गये हैं घर व आँगन,

छूट गये अपनों के दामन,

यही देख के मैं घबराती,

तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।



है बड़ी बेचैनी मन में,

नफ़रत फैली है जन-जन में,

नींद भी अब तो नहीं है आती,

तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।