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तमन्ना तितली की / शशि काण्डपाल

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मैं तितली,
बिन पंख,
बिन रंग,
लेकिन मैं तितली...
उड़ती आँगन पार,
कल्पना के पंख लगा,
हो आती पर्वत पार,
पंखो को अंग लगा,
ना रोके कोई, ना टोके,
मैं तितली...
जान पाई न छुवन फूलों की,
ना ही रस से भीगी नहाई,
ना जानी खुशबू, कड़वी मीठी,
ना ओस से पर भिगा पाई,
ना दौड़ा कोई नन्हा बालक,
मुझे छूने को नंगे पाँव,
ना हाथों के बीच किसी के,
समा पाई...
गिनती हूँ पलों को,
जो बदलते हैं सालों में,
करती हूँ इन्तजार,
पंखों के उग आने का...
चाहूँ कलियों की बहार,
और रंग चारों तरफ,
झूमूं मैं भी फूल-फूल,
डाली- डाली,
भिगोऊँ अपने पैर,
इस पराग से, उस केसर तक...
कर दूँ जंगल हरा भरा,
बों दूं फूलोँ की क्यारियाँ,
गाऊँ गीत रात दिन,
बना दूँ ये दुनियाँ,
एक गुलिस्तान...

ताकि जी सकें हजारों तितलियाँ,
स्वछंद...रंगभरी,
और कर दें इस संसार को,
और भी हसीन,
जहाँ सूरज निकलने से ना शरमाये,
और चाँद भी ख़ुशी ख़ुशी उग आये,
तितलियों के गीत हों,
और रंग ही रंग भर जाएँ...
मन ही मन ये गीत दोहराऊँ,
काश मैं वो दुआ की तितली बन जाऊँ,
दे सकूँ वो विरासत,
आने वाली नाजुक नस्ल को,
यकीन दिलाऊँ
मैं तितली हूँ...
तमाम जीने की खासियत के साथ,
सतरंगी तितली...