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तमसो मा ज्योतिर्गमय / त्रिलोचन

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मैं चिता का चाहता हूँ अब उजाला

           बून्द-जितना तिमिर सागर बन गया है,
           बस, उसी की लहर में जग फंस गया है;
           देखने को नेत्र कुछ पाते नहीं हैं
           बस, तिमिर है — तिमिर इतना बढ़ गया है
शून्यता ने है अमित अवसाद डाला

           देख लूँ तम को कि कितना बल मिला है ?
           देख लूँ बल को उसे क्या फल मिला है ?
           ज्योति उसके तारकों में रंच बाक़ी
           ज्योति का क्षय कर उसे क्या फल मिला है ?
क्षीण अन्तर्ज्योति, जग की शान्त ज्वाला !

           ज्योति जीवन की सदा से सहचरी है,
           ’वह न होगी’ — चिन्तना यह भयकरी है;
           कभी बहिरन्तर उभय की एकता में
           ’ज्योति जीतेगी’ — दशा यह सुखकरी है !
पर अभी जीवन जले तब हो उजाला !