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"तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़ / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

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तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़  
 
तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़  
 
नवा-ए-राज़ है ऐ दोस्त या तेरी आवाज़  
 
नवा-ए-राज़ है ऐ दोस्त या तेरी आवाज़  

23:11, 24 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण

  
तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़
नवा-ए-राज़ है ऐ दोस्त या तेरी आवाज़

मेरी ग़ज़ल में मिलेगा तुझे वो आलमे-राज़
जहां हैं एक अज़ल<ref>ग़म</ref> से हक़ीक़त और मजाज़

वो ऐन महशरे-नज्‍़जारा हो कि ख़लवते-राज़<ref>गुप्त एकांत</ref>
कहीं भी बन्द- नहीं है निगाहे-शाहिदबाज़<ref>सौन्दर्य के प्रति आसक्त आँखें</ref>

हवाएं नींद के खेतों से जैसे आती हों
यहां से दूर नहीं है बहुत वो मक़तले-नाज़

ये जंग क्या है लहू थूकता है नज़्मे-कुहन
शिगू़फ़े और खिलायेगा वक्‍़ते-शोबदाबाज़<ref>बाज़ीगर समय</ref>

मशीअ़तों को बदलते हैं ज़ोरे-बाजू़ से
'हरीफ़े-मतलबे-मुश्किल नहीं फ़सूने-नेयाज़<ref>जादुई अदा</ref>

इशारे हैं ये बशर की उलूहियत की तरफ़
लवें-सीं दे उठी अकसर मेरी जबीने-नेयाज़

भरम तो क़ुर्बते-जानाँ का रह गया क़ाइम
ले आड़े आ ही गया चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़<ref>वैमनस्य पैदा करने वाला आकाश</ref>

निगाहे-चश्मे-सियह कर रहा है शरहे-गुनाह
न छेड़ ऐसे में बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़<ref>उचित-अनुचित का तर्क</ref>

ये मौजे-नकहते-जाँ-बख्‍़श यूँ ही उठती है
बहारे-गेसु-ए-शबरंग तेरी उम्र दराज़

ये है मेरी नयी आवाज़ जिसको सुनके हरेक
ये बोल उठे कि है ये तो सुनी हुई आवाज़

हरीफ़े-जश्ने-चिरागाँ है नग़्म-ए-ग़मे-दोस्त
कि थरथराये हुए देख उठे वो शोला-ए-साज़

‍फ़ि‍राक़ मंजि़ले-जानाँ वो दे रही है झलक
बढ़ो कि आ ही गया वो मुक़ामे-दूरो-दराज़

शब्दार्थ
<references/>