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तरंगों-सी सदियाँ / अशोक शाह

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उसकी उदासी से झरती है
समय की पपड़ियाँ
भावशून्य चितवन में उसके
विस्मृत हो रहीं अनन्त
तरंगों-सी सदियाँ

उन कृष्ण पलकों के निक्षेप से
आर्द्र हो उठता गगन
हिलोरता मचल जाता
दुःखों का अथाह समुद्र

उसके उत्तरीय सलवटों से
बहती पुण्य सलिला सरिता
मुस्कुराती ऐसे मानो
सरक रहा हो रश्मियों का
सतरंगी सहमता आँचल

इशारे से उसके
बिछ जाता पारिजात
करता धरती को सुवासित
शुभ्र विभव प्रणाम

उसकी शरमाहट की सिहरन से
रोम-रोम पुलकता
खिल उठता तत्क्षण
शर्मिला सेमल अरुणाभ

बिखराती है अलकें
बदल जाती ऋतुएँ
उसकी साँसों की
हर आवृत्ति के साथ

वह बतियाती है मचलते
तर्जनी से मरोड़ते दुकूल
और धरती पर खिल उठते
प्रणय के प्रमुदित फूल

पा उसके आत्मविष्वास का सान्निध्य
खड़ा चिर सुकून में
शीशम का इकलौता गाछ
सहेजे धरा की हरी माँग

वह गुनगुनाती है वसन्त
तरंगित हो जाता मालकौंस
फूट आता रोमांचित पीपल
लोहित नव किसलय में

प्रार्थना में खुलते बन्द होते
उसके रक्त अधर
मानो स्पन्दित ब्रह्माण्ड
फैल रहा हो दिगन्त

मेरे सिर पर हाथ फेरते
बह पड़ता निर्झर थमा
भिंगोता बेजान पठार-सा
सूना अन्तर्तम

उसके करवट लेने से
मुस्कुराती है मुदित मेदिनी
होती रहतीं सुबहो-शाम
अविरल दिन-रात

और जब-जब वह देखती है
नीरव मेरी आँखों में
लजा जाती है मेरी कविता
अपने लघु अस्तित्व में