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तर्पण / चंद्रभूषण

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जमीन छोड़ी होती तो

इतने कलेस के बाद

ज्यादा सोचने की जरूरत न पड़ती

खींचकर खर्रा मुंह पर मारता और कहता

ले लो इसे जहां लेना हो

अपन तो चले खेती करने


पैसे छोड़े होते

कोई काम ही सिखा दिया होता

तो यहीं दफ्तर के पास

अपना धंधा खड़ा कर देता

कुत्ते की तरह दुबारा शकल दिखाने

इधर तो न आता


अरे कुछ नहीं छोड़ा तो

अकल ही दी होती दुधारी तलवार

कि यहीं पड़ा-पड़ा धूल की रस्सी बंट देता

चित कर डालता खिलाड़ियों को

उनके ही खेल में


जीने भर को दिमाग दिया, मन दिया

सत्य, सहृदयता, ईमानदारी दी-

पर यह भी तो नहीं कह सकता छाती ठोंककर

कि कहूं तो किस लायक हूं

जो कोई रुककर ये चीमड़ बातें सुनेगा


हर पिटाई के बाद ऐसे ही किलसकर

याद करता हूं तुम्हें ओ पिता

देता हुआ खुद को दिलासा

कि न कम न अधिक

ठीक इतना ही छोड़कर जाऊंगा

मैं भी अपने बेटे के लिए


ताकि हर तीसरे दिन

वो ऐसे ही भुनकर मुझे गालियां दे

और ज़्यादा नहीं तो उसके जीते जी

मेरे साथ तुम्हारा भी तर्पण होता चले