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<poem>
तलवे जो चाटते वो वफ़ादार हम नहीं।
आशिक आशिक़ हैं किंतु इश्क इश्क़ में बीमार हम नहीं।
लिपटे हुए हैं राख में पर यूँ न छेड़िए,
मुट्ठी में ले -लें आप वो अंगार हम नहीं।
रोटी दिखा वतन की बुराई न कीजिए,
भूखे तो हैं जरूर पर गद्दार ग़द्दार हम नहीं।
पत्थर भी खाएँ आप के, फल आप ही को दें,
आते जो छप के रोज़, हैं अख़बार, हम नहीं।
घाटा, नफ़ा, उधार, नकदनक़द, मूल, सूद सब,सीखे पढ़े हैं खूब ख़ूब पर बाजार बाज़ार हम नहीं।
</poem>
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