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तलाश / बाबूलाल मधुकर

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मेरे चारों ओर शिविर लगे हुए हैं
जहाँ नयी-नयी तालीमें दी जा रही हैं
दिशाओं में शोर है, इतिहास बदला जा रहा है
दलित मूल्यों के पाये ढाहे जा रहे हैं
परम्परा के अनुसार कोई मसीहा या कोई—
अवतार जन्म ले रहा है
मैं एक अदना आदमी की हैसियत से
शिविर को देख रह हूँ
ग्लोब पर खड़ा होकर
भूगोल को देख रहा हूँ
जब कभी मेरी अँतड़ियों की ऐंठन से
आह और कराह निकलती है
तभी फुँफकार के अपराध में
मेरी क़ौम की बस्तियों में
आग लगती रही है आग
जिसे शिविर के लोग
तमाशे की तरह देखते रहे हैं
मसीहा मुस्कुराता रहा है
और मैं चौराहे पर खड़ा होकर
अपनी जमात की तलाश करता रहा
तलाश!!