Last modified on 22 अक्टूबर 2013, at 15:09

तसलसुल / सलाम मछलीशहरी

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:09, 22 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सलाम मछलीशहरी }} {{KKCatNazm}} <poem> ठहर जाओ इ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ठहर जाओ इन्हीं गाती हुई पुर-नूर राहों में
और इक लम्हे को ये सोचो
हरे शीतल मनोहर कितने जंगल आज वीराँ है
वो कैसी लहलहाती खेतियाँ थीं अब जो पिन्हाँ हैं
वो मंज़र कितने दिलकश थे जो अब याद-ए-गुरेज़ाँ हैं

बस इक लम्हे को ये सोचो
न जाने कितनी नाशों को कुचल कर आज लाए हो
नई तहज़ीब की इन जन्नतों में
जल्वा-गाहों में

सुनो इंसाँ हूँ
और रोज़-ए-अज़ल ही से
मिरी तख़्लीक़ और तामीर के जल्वे फ़रोज़ाँ हैं
मैं जब मरता हूँ
तब इक ज़िंदगी आबाद होती है