भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तस्वीर और तस्वीर / सूरज

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:15, 16 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरज |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> '''किसी भी फ़ोटोग्राफ़र / …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी भी फ़ोटोग्राफ़र / कैमरामैन के लिए

मैं समझता हूँ
पालतू कैमरे को बन्दूक
रंगो को स्याही
अक्षर हैं चेहरे
तस्वीरों के क़िताबी जीवन में
जीता रहा ज्ज्ज्ज्जूँssssssजीक्क की आवाज़ में

मैने उतारी है
चुम्बनों में शामिल आवाज़ की तस्वीर
पानी और हवा में हस्ताक्षर की तस्वीर
मैगी और दोस्ती के स्वाद की तस्वीर
शाम के धूसर एकांत की तस्वीर
भागते पेड़ और रूके समय की तस्वीर

अच्छे वक़्तों में प्रेमिका बुरे वक़्तों में माँ की तरह
अटूट साथ दिया इस
बगटूट कैमरे ने

मेरी, रिक्शे और रिक्शे वाले की
परछाईयों को आपस में गुँथा देख
कैमरा हो गया ख़ुद-ब-ख़ुद ओन
ज्ज्ज्ज्जजूँsssss के बाद जीक्क्क की
आवाज़ थी बची हुई जब रिक्शेवाले ने कहा साथी रिक्शेवाले से
“हो मीता पैरवा पीड़ावत हवे”
हे ईश्वर! तू भी नही मानेगा? पर मेरा कैमरा और मैं
दोनो ही रह गए थे अवाक !
उस दिन तक इस सपाट सच से
थे हम अंजान कि होता है दर्द
रिक्शेवालो को, होते हैं उनके पैर भी
और यह कि रिक्शे और पैर में
कोई सम्बन्ध भी

हारा मैं उतारनी चाही दर्द की तस्वीर
रह गए हम पैरो और पतलून में
उलझ कर मैं और अच्छे दिनों
की प्रेमिका

जबकि झुका भी नहीं हूँ मै
संशयात्मा बन कैमरे का लेंस
रहता है घूरता अब
सोचता दिन-ब-दिन
क्या कभी उतार पाऊँगा
दर्द की कठिन तस्वीर ?