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तस्वीर तुम्हारी / सुनीता शानू

दिल के कोरे कागज पर
खींचकर कुछ
आड़ी-तिरछी लकीरें
जब देखती हूँ मैं
बन जाती है
तस्वीर तुम्हारी

ऐसा लगता है
कागज़ का वह टुकड़ा
कह रहा हो मुझसे-
जो बसा है दिल में
उसे क्यों उकेरा कागज पर?
देखो कोई जला न दे
हवा कहीं उड़ा न दे
और घबरा कर मैं
समेट लेती हूँ
वह तस्वीर तुम्हारी....

जब सुबह सूरज भी
अपनी किरणें फ़ैलाये
आता है खिड़की पर
तब अधखुली आँखों में भी
आते हो तुम नजर
लगता है जैसे
तुम्हारी इंद्रधनुषी बाँहें
लिपटी हैं मेरे इर्द गिर्द
और मेरे चेहरे से छूकर
जगा देती है मुझे-

तुम्हारी तस्वीर के साथ
क्यों लगता है ऎसा
कि
तुमसे मिलकर जिन्दगी
बन गई है एक कविता
और
मैं एक कलम
जो हर वक्त
तुम्हारे प्यार की स्याही से
बनाती है
तस्वीर तुम्हारी...