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ताक़-ए-जाँ में तेरे हिज्र के रोग संभाल दिए / शहनाज़ नूर

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ताक़-ए-जाँ में तेरे हिज्र के रोग संभाल दिए
उस के बाद जो ग़म आए फिर हँस के टाल दिए

कब तक आड़ बनाए रखती अपने हाथों को
कब तक जलते तेज़ हवाओं में बेहाल दिए

वही मुक़ाबिल भी था मेरा संग-ए-राह भी था
जिस पत्थर को मैं ने अपने ख़द्द-ओ-ख़ाल दिए

ज़र्द रूतों की गर्द ने हाल छुपाया था घर का
इक बारिश ने दीवारों के ज़ख़्म उजाल दिए

धात खरी थी जज़्बों की लेकिन उजरत से क़ब्ल
क़िस्मत की टकसाल ने सिक्के खोटे ढाल दिए

ताज़ा रूत के इस्तिक़बाल की ख़ातिर शाख़ों ने
पेड़ के सारे मौसम-दीदा-पात उछाल दिए

जिन को पढ़ कर पहले हँसती थी फिर रोती थी
आख़िर इक दिन मैं ने वो ख़त आग में डाल दिए

जिन में थे मज़कूर हवाले तेरी चाहत के
‘नूर’ किताब-ए-ज़ीस्त से वो औराक़ निकाल दिए