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ताजमहल / शंकरलाल द्विवेदी

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ताजमहल
(१)
ताज तुझे जब-जब देखा अन्तर्नयनों से,
कलाकार का मन सहसा भर-भर आया है।
दुर्गति पर उन सभी कलाकारों की जिनके-
हाथ कटे, पलकों में सावन घिर आया है।।
(२)
श्वेत-दूधिया दीप्ति तुम्हारी प्राचीरों की,
लगता है वे लाश कफ़न ओढ़े सोईं हैं।
विधवा पत्नी, माँ-बहिनों की; अश्रु-सलिल से-
तेरे उपवन में असहाय व्यथा बोई हैं।।
(३)
उस युग में भी नृत्य विषमता करती होगी-
भूखे पेट, ठिठुरती रातें, तारे गिन कर।
उसी समय जन-साधारण ने काटीं होंगी-
शाहजहाँ धुत् होगा जब कुछ ज़्यादा पी कर।।
(४)
शाहजहाँ के तप्त अधर, मुमताज़ महल के-
सुर्ख़, नरम, चिकने अधरों पर फिसले होंगे।
दीवानापन भी सवार दोनों पर होगा-
आलिंगन में बँधे, सेज पर मचले होंगे।।
(५)
दीवारें उन्मत्त क़हक़हों को सुनती थीं,
मंद-पवन मादकता का उद्दीपक बन कर-
नग्न-प्राय अंगों को छू कर हँस देता था-
दबे पाँव, दरवाज़ों के पर्दों से छन कर।।
(६)
ठीक उसी क्षण, पर्ण-कुटी में नतशिर बैठे-
दम्पति अपनी दरिद्रता पर व्याकुल-विस्मित,
बुझी राख चूल्हे की, लकड़ी से कुरेद कर-
ठण्डी आहें भरते होंगे या फिर चिन्तित-
(७)
एक दूसरे की आँखों में झाँक-झाँक कर,
खोज रहे होंगे अनेक प्रश्नों के उत्तर।
कोरों से उत्तप्त अश्रु-कण, रह-रह, बह-बह-
मिट जाते ज्वर-दग्ध कपोलों पर बुझ-बुझ कर।।
(८)
तेरी कला और वैभव ने तब से अब तक,
केवल पूँजीवादी स्वर आबाद किया है।
ताजमहल! सच मान, झूठ कुछ नहीं कि तूने-
पाक मुहब्बत का दामन नापाक किया है।।
(९)
तू केवल कामुक प्रवृत्ति का परिचायक है,
पावनता की गंध किसी को कैसे आए?
वैसे भी तू अंध कूप पर आधारित है-
कौन तुझे श्रद्धा से देखे, शीष झुकाए?
(१०)
तेरा यह निर्माण इसलिए भी कलुषित है-
जन-धन का उपयोग व्यक्ति के लिए हुआ है।
धिक्-धरती के विपुल-वक्ष पर पड़े फफोले!-
यमुना की संगत के बल पर खड़ा हुआ है।।
(११)
यमुना की धारा से कल यह प्रश्न कर लिया-
'दर्शन' और 'देखने' में अन्तर है कितना?
कल-कल स्वर में हँस कर, कर इंगित कर बोली-
‘वृन्दावन’ में और ‘आगरे’ में है जितना।।
(१२)
तू मज़ार पर नहीं, स्वतंत्र रूप से बन कर-
तत्कालीन कला का परिचायक भर होता।
निःसन्देह अवनि क्या अम्बर के भी मन में-
अपने प्रति श्रद्धा के नव-नव अंकुर बोता।।
(१३)
तुझे नहीं परिज्ञात हुआ अब तक यह शायद,
कैसे, किस कारण सहसा धरती पर आया?
तेरी जीवन-ज्योति जला कर कितने दीपक-
बुझे- और कितने गेहों में तम घहराया।।
(१४)
चौदह बच्चों की माँ, कभी रोग-शैया की-
बाँह गहे, जीवन की नश्वरता से चिन्तित-
पड़ी हुई थी, जीवन-साथी झुक पलंग पर-
पूछ उठा, ‘क्या वस्तु तुम्हें है इस क्षण इच्छित?’
(१५)
माथे पर कलंक-रेखा सी झुकी लटों को-
बेगम ने बेताब अँगुलियों में उलझा कर।
मदिर-रुग्ण नयनों के सम्मोहन में डूबे-
शहंशाह से सौगंधों का जाल बिछा कर-
(१६)
प्रण करवाया ‘मेरे मर जाने पर ऐसी-
यादगार बनवाना जो अपूर्व कहलाए।
दुनिया भर में जिसकी शोहरत का स्वर गूँजे;
प्यार भरे हृदयों को जो तीरथ बन जाए।।
(१७)
जिसको दर्पण समझ, इन्दु अपनी छवि देखे,
यमुना अपने निर्मल जल से चरण पखारे।
चिड़ियाँ साँझ-सवेरे अपने चह-चह स्वर से-
उपवन के बिरवों पर बैठीं गगन गुँजारें।।
(१८)
और...और...’ बस इतना भर कह सकी, देह-सर,
साँसों के हंस, हुए मुक्त पाँखें फैलाए-
उड़े पवन के साथ, दृष्टि से ओझल हो कर,
श्वेत पुतलियाँ देख शाह के दृग भर आए।।
(१९)
वंचित सा अवाक्, शव पर पागलों सरीख़ा-
हाथ फेर कर, बार-बार निज केश नोंच कर-
चीख़ा- ‘कोई है’, तुरन्त किंकरी उपस्थित-
हुई, देख बोला- ‘वज़ीर को भेज खोज कर’।।
(२०)
इतने पर भी मूढ़ नहीं समझा इतना भी,
संसृति का सब कुछ नश्वर ही तो है, केवल-
प्रेम अमर है, मूर्त साधनों के संबल की-
उसे अपेक्षा नहीं, तान कर फिर भी तेवर।।
(२१)
उग्र स्वरों में पास खड़े वज़ीर से बोला-
‘श्रेष्ठ कलाकारों-मज़दूरों से यह कहना-
यमुना-तट पर एक अपूर्व भवन बनना है,
चलो अभी आनाकानी कोई मत करना’।।
(२२)
उसके आज्ञापित सैनिक तब नगर-नगर की-
गली-गली में घूमे होंगे, गेह-गेह में।
घुसकर बरबस ले आए होंगे श्रमिकों को,
चार-चार, छः-छः कोड़े खा नग्न देह में-।।
(२३)
अश्वारोही दीवानों के साथ दौड़ कर-
थके हुए हरिया-रफ़ीक़ ने हाथ जोड़ कर-
दो पल सुस्ताने को किया विनम्र निवेदन;
मुँह पर ठोकर दी सैनिक ने अश्व मोड़ कर।।
(२४)
कहा कि-‘नालायक! विलम्ब का काम नहीं है,
मज़दूरों के लिए आग बरसे या पानी।
सुस्ताने के हेतु छूट देने का मतलब-
अनुशासन-शासन दोनों की नींव हिलानी’।।
(२५)
तात्पर्य, तू जो कुछ भी है उसके नीचे,
बच्चों-बूढ़ों के विलाप का दबा शोर है।
रक्त-वर्ण दीवारें दो प्रवेश द्वारों की?-
एक-एक पाषाण रक्त में सराबोर है।।
(२६)
तेरे निर्माता ने अपने अधिकारों का-
दुरुपयोग जो किया विवशता का श्रमिकों की।
वह अपराध किया है अनुचित लाभ उठा कर,
क्रमागता पीढ़ियाँ क्षमा कर नहीं सकेंगी।।
(२७)
कर कटवाते समय उसे यह ध्यान नहीं था-
कालान्तर में कला परिष्कृत प्रौढ़ बनेगी।
क्योंकि विकास धर्म है मानव के जीवन का,
फलतः सारी स्रष्टि उसे निर्बुद्धि कहेगी।।
(२८)
रजत ज्योत्सना में तो सब सुन्दर लगते हैं,
कोई तेरा रूप, अमावस्या को देखे।
मृत्यु-पिशाची अट्टहास कर उठे, अचानक-
दशन-समूह दृष्टिगोचर होता हो जैसे।।
(२९)
परिवर्तन का दैत्य, समय के तीक्ष्ण-भयंकर-
नाख़ूनों से अंग-अंग तेरा नोंचेगा।
जब कोई निष्पक्ष नया इतिहास लिखेगा,
तू उस रोज़ विवश हो कर अवश्य सोचेगा।।
(३०)
जिस दिन मेरी आँखों से देखेगा कोई-
उस दिन तेरा सहज सत्य प्रतिभासित होगा।
जिस दिन भूमिसात् होंगी तेरी प्राचीरें,
उस दिन तेरा सही स्वरूप प्रकाशित होगा।।
(३१)
मैं क्या था, राजसी दम्भ या पागलपन का-
शोषण और रक्त से पनपा अनाचार था।
तृण से भी था नगण्य, जिस कारण पुजा हुआ था,
कलाकार की सहन शक्ति- 'श्रम' का प्रचार था।।
-24 मार्च, 1965