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तारा आखिरी पहर का(मुक्तक) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

1
औरों को दुख देकरके जो हरदम मुस्काता है
खुद जलकरके जो औरों के घर झुलसाता है ।
चैन कभी इस दुनिया में उसको मिलना है मुश्किल
औरों का रो देना जिसको ठण्डक पहुँचाता है ।
2
किसी दिन मिटेगा अँधेरा सोच लो
कभी तो सजेगा सवेरा सोच लो ।
उजड़ा है माना नीड आँधियों में
बनेगा किसी दिन बसेरा सोच लो।
3
मत समझो कि मैं मगरूर हूँ,
वक्त के हाथों मजबूर हूँ ।
दिल में तुम्हारे बसा हूँ मैं
समझो नहीं कि बहुत दूर हूँ।
4
टूटी है नौका दरिया है गहरा
अंतिम हैं साँसें ऊपर है पहरा ।
जुबाँ भी कटी है कैसे मैं बोलूँ
अंधे मोड़ पर यह वक़्त है ठहरा ।
5
सदा पास तुमको पाया है मैंने
दर्द ज्यों दिल में छुपाया है मैंने ।
मुझे माफ़ करना आज मीत मेरे
तुमको बहुत ही सताया है मैंने ।
6
झुलसा हूँ मैं कि तुझे आँच न आए
कोई तेरे मन को चोट न पहुँचाए ।
मैं ठहरा तारा आखिरी पहर का
कौन जाने भोर कभी देख पाए।
7
हम कैसे कहें कि निशदिन तुम्हारी याद आती है
बसी हो मन-प्राण में ऐसी छवि ज्योति जगाती है ।
गले तुमको लगाया था अभी तक रोम हैं सुरभित
यही थी साध जनमों की तुमने दी जो थाती है।