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तारीख में स्त्री / प्रांजलि अवस्थी

कैलेण्डर पर से उतरती और चढ़ती तारीख
जैसे किसी स्त्री की तरह है
जिसके पूरे दिन के क्रियाकलापों में
किस्मत की हाँ हुजूरी के अलावा
अशान्त मन में उठ रहा शोर भी होता है
एक फिक्र होती है
जो शाम होते-होते सन्नाटों की गोद में सिर रख कर
थक हार कर सो जाती है
वो दोनों ही जैसे नहीं चाहतीं कि
किसी और की किस्मत उनके जैसी हो

कभी ये नयी स्त्री (तारीख़)
 इतिहास को याद करके
मत्था पकड़ कर बैठ जाती है
या कभी कुछ सोच कर चुप हो जाती है
प्रतिकार का अधिकार
उसकी कलाई की चूड़ी में बँधे
सेफ्टीपिन की तरह है
जो है पर चुभने के लिए नहीं, संभालने के लिए
इसलिए यदाकदा
वो जीवन को दोषी ठहराते हुये
अंत में सारा ठीकरा भाग्य पर फोड़ देती है

वो दोनों ही जैसे जानती हैं कि
अतीत को निराधार कह कर
वर्तमान में जिया जा सकता है

तारीख़ और स्त्री
एक दूसरे की अनुकूल अनुकृति हैं ...