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तितली और कवि / राकेश रंजन

बचपन के बाग में
तितली के पीछे उझकता वह
प्रायः वह गिरता
हथेलियाँ छिल जातीं
घुटने लहूलुहान हो जाते
मगर वह पुनः उठता
तितली के पीछे पुनः भागता
भागता ही रहता वह
पानी में, पत्थर में
काँटों में, खड्डों में, खोहों में
सपनों के खोखल में विकल
लगातार...

पर दिनों बाद एक दिन अनायास
एक भोली-सी, भूली-सी तितली
पहुँची उसके पास
पाँखों में फड़-फड़ उमंग
आँखों में डब-डब उल्लास लिए
कहा उससे : कवि, मुझे उड़ना सिखा दो
चाँद फूल तक जाने का रास्ता बता दो !

ऐसा कुछ करता वह कवि
जो सबल होते तितली के पाँख
बड़ी और ऊँची हो पातीं उड़ानें
स्नेहिल सौन्दर्य बन, सुगन्ध बन
खिल पाता उसका पराग अखिल पृथ्वी पर
कहता वह : आओ, तुम्हें उड़ना सिखा दूँ
चाँद फूल तक जाने का रास्ता बता दूँ !

पर कहा उसने :
आओ, मेरे पास, मेरी खातिर
मेरे मन-व्योम में असंख्य चाँद फूल हैं
किरणों के रंगों और गंधों से भरे, अनाघ्रात
इन पर मण्डराओ, ठहर जाओ, मेरे लिए
आओ, मेरे पास, मेरी खातिर !
तितली ठहर गई कवि के ही पास

पर धीरे-धीरे रहने लगी गुमसुम
उदास
अबल हुए पाँख
भूल गई उड़ान
मलिन हुई नन्ही-सी जान !
एक दिन कहा उसने :
मुझे याद आते हैं बाग...
गाछ-पात-पंछी...
जंगल और जंगल के फूल...
फूलों के रंग और गन्ध...
गन्धों में डूबी हवाएँ...
हवाओं का सर-सर संगीत...
संगीत के फूटते हुए झरने...
झरनों में गाते हुए पत्थर...
नहाते हुए तारे... बादल और चाँद...
याद आते हैं पहाड़-
ऊँचे वे हरे-भरे इन्द्रजाल
जालिक मायावी
चाँदी के नभचुम्बी फूल-से दमकते
विराट वे पहाड़ याद आते हैं
बारहा बुलाते हैं बाँहें पसार !

तितली ने नहीं पूछा : जाऊँ
कवि ने भी नहीं कहा : जाओ !

एक दिन कहा उसने फिर :
बाग में विहँसती हुई तितली न होगी
कैसे फिर भागेंगे बच्चे
बच्चे न भागेंगे
किस दम पर नाचेगी पृथ्वी
पृथ्वी न नाचेगी
कैसे फिर जाएगी अँधियारी रात-
दिन कैसे होगा

उसने फिर नहीं पूछा : जाऊँ
कवि ने फिर नहीं कहा : जाओ !

उस दिन के बाद दिन कभी नहीं हुआ
स्वार्थ के अँधेरे में रहा कवि जीवित
पर... तितली मर गई !