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तितली / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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बड़े यत्न से
बनी हुई हूँ
तितली

मुझे मत पकड़ो
मुझे मत खदेड़ो
मैं उड़ती रहना चाहती हूँ
विराट आसमान में ऐसे ही

हवा में है मादक लय
बयार में है रुमानी गीत
किरणों का है इन्द्रधनुषी प्रेक्षालय
आह!
मेरे पंख छूकर गुनगुनाती
बारिश की बुँदों का है नाद!

सँजोना चाहती हूँ
न छोड़कर कुछ
एक–एक चीज़
हृदय के संग्रहालय में

देखना चाहती हूँ
कितने सुन्दर फूल है धरती में
कैसे नृत्य कर रहे हैं पत्ते हवा में
कौन-सा गीत गाती हुई बह रही है नदी
कौन-सी धूप की प्रतीक्षा में खड़ा है पहाड़
कहाँ पहुँचने के इरादे से चल रहा है राही
किस भूख से रो रही हैं समय की कोमल आँखें?

जानना चाहती हूँ
ये सब बातें
अपनी ही आँखों से
अपने ही विवेक से

जंगल के किसी दुर्गम रुख में
अनगिनत असफल फूल के बीच से निकला हुआ
अमूक लार्वा हूँ मैं
हठात नहीं हूँ बनी
रंगीन तितली!

भोग कर प्रकृति चक्र की नियति
गुजार कर एक ही जन्म में हज्जारों योनी के दुःख
बड़े यत्न से
बनी हुई हूँ तितली

ओ सुन्दरता के उपासक!
मुक्त कर दो मुझे
तुम्हारे कैनवास की दिवारों से
तुम्हारी कविता के हरफों से
जहाँ जहाँ
तथाकथित सौन्दर्य के नाम में
युगों से
बनाये हुए हो मुझे
बन्दी

उड़ना चाहती हूँ मैं
मुक्त उड़ान!