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तिनका / संजीव बख़्शी

जब तिनका उड़ा था
धूल से ऊपर
तो पीछा किया था धूल ने
कुछ ऊँचाई तक
तब
धूल को वापस जाते देख
इतराया था तिनका
हवा में इठलाते
पर हवा के थमते ही
सब कुछ थम गया
मानो सब कुछ बदल गया
उसे अब भार का एहसास हुआ था
वह बेबस होकर
धूल की ओर मुड़ा था
उसे अब मालूम हुआ
जिस गति का अहंकार था उसे
वह उसका अपना नहीं था
हवा से जुड़ा था
काश ऊपर उड़ते-उड़ते
वह अपने को पहचाना होता
तो उसमें और
धूल के कणों में
इतनी दूरी न होती
उसके साथ आज
मज़बूरी न होती