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तिरे सुलूक का ग़म सुब्ह-ओ-शाम क्या करते / रईस सिद्दीक़ी

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तिरे सुलूक का ग़म सुब्ह-ओ-शाम क्या करते
ज़रा सी बात पे जीना हराम क्या करते

कि बे-अदब का भला एहतिराम क्या करते
जो नास्तिक था उसे राम-राम क्या करते

वो कोई ‘मीर’ हो ‘ग़ालिब’ हों या ‘अनीस’-ओ-‘दबीर’
सुख़न-वरी से बड़ा कोई काम क्या करते

न नींद आँखों में बाक़ी न इंतिज़ार रहा
ये हाल था तो कोई नेक काम क्या करते

मिज़ाज में था तकब्बुर तो हरकतों में ग़ुरूर
फिर ऐसे शख़्स को हम भी सलाम क्या करते

‘रईस’ ख़ू-ए-वफ़ा ने हमें रूलाया है
फिर इस चलन को भला हम भी आम क्या करते