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तीन मुक्तक / कुबेरनाथ राय

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पराजय

टेर-टेर मैंने लिखे गीत
पर आये नहीं मीत
गीत दमदार रहे- पर भक्त दमदार नहीं
कवि ने तो कहा ही है- (पर में ही नहीं मानता था)
प्रिय, तुम्हे भी सता रही कलि की रीति।

उर्ध्वबाहु

उस गुरु ने कहा- "बहुत दिनों तक, गहरी घाटियों में छिपी मोहि तूने देखी है
बहुत, बहुत दिनों तक
सूखी स्रोतस्विनी में भटक-भटक कर मृगजल पिया है,
अरे तू
अपनी ही क्षुद्रता में बँधा अनजान
तू ही है सहस्र सूर्यों का सहचर बन्धु
अपनी ही बाहुओ में सहस्रधार सृष्टि स्रोतस्विनी बाँधे हुए।"
-कहा उस गुरु ने शिष्यों से भुजा उठा
"फिर भी तुम मेरी बात नहीं सुनते!
वह अरण्य से टकराती है
फिर लौट आती है
छू दी, मृतक-श्‍वास, अर्थहीन
लज्जित, कातर, और अति दीन।"

एक कामेडी

'तू एक पत्ता उड़ाता हवा में
तू क्या जाने लघुबीज की बात!
वह लघु
वह क्षुद्र
वह दीन-हीन
पर दिल में अनागत के
हरे-हरे बिराट को सँजोये हुए
वही है भविष्य का वेधा
वही है नये सृजन का पिता।' जब तूने सुनी यह बात
तू अकड़ा
कूदा
फुदका और चढ़ गया हवा की डोर पर
उच्च स्वर से चिल्ला उठा- "सुनो, सुनो, मैं अपराजेय
मैं चराचर वर्त्‍तमान का स्वामी
यह बीज, भविष्य का अस्तित्व,
क्या जाने आज का सृष्टि तत्व?
कभी देखा भी है?- नाता इस झंझा का उन्मत्त नृत्य!
कभी सुनानी है?- उस पर उमड़ती हुई शंख-ध्वनि वर्त्‍तमान की।"
कि एक झोंका
उधर से आया उसे
ला पटका जमीन पर।
बीज देख यह हँस पड़ा।