Last modified on 18 सितम्बर 2016, at 04:10

तीरगी से रौशनी का हो गया / प्रखर मालवीय 'कान्हा'

तीरगी से रौशनी का हो गया
मैं मुक़म्मल शाइरी का हो गया

देर तक भटका मैं उसके शह्र में
और फिर उसकी गली का हो गया

सो गया आँखों तले रख के उन्हें
और ख़त का रंग फीका हो गया

एक बोसा ही दिया था रात ने
चाँद तू तो रात ही का हो गया ?

रात भर लड़ता रहा लहरों के साथ
सुब्ह तक ‘कान्हा’ नदी का हॊ गया