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तुझे कुछ याद है पहला वो आलम इश्क़-ए-पिन्हाँ का / 'ममनून' निज़ामुद्दीन

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तुझे कुछ याद है पहला वो आलम इश्क़-ए-पिन्हाँ का
शगाफ़-ए-पर्दा से क्या था इशारा चश्म-ए-फ़त्ताँ का

सुना है कब ये छुटती है पकड़ गोशा न दामाँ का
समझ काजल न फैला साया है तेरी ही मिज़गाँ का

यहाँ दम खींचना दो दोपहर मुश्किल है हो जाता
धुआँ घटता है जब सीने में अपनी आह-ए-सोज़ाँ का

न की ग़मजे़ ने जल्लदारी न उन आँखों ले सफ़्फ़ाकी
जिसे कहते हैं दिल अपना वही क़ातिल हुआ जाँ का

शिगाफ़-ए-सीना से अज़-बस-कि दूद-ए-दिल निकलता है
सियह अब जा-ब-जा से रंग है अपने गिरेबाँ का

ये दिल है क़तरा-ए-खूं से भी कम अल्लाह की जुरअत
हुआ है तिसपे रू-कश उस ख़दंग अंदाज़ मिज़गाँ का