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तुमने कभी सोचा सूखे तपे पहाड़ों का दुःख / कर्मानंद आर्य

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मेरे जिस्म से निकलने वाली नदियों
समय के क्रूर पत्थरों
अस्मिता की अँधेरी गलियों में भटकने वाली दलित आत्माओं
बाहर निकलो

उन्होंने हमें सच का प्रलोभन दिया है
छीना है हमारा स्वत्व, हमारा घर, हमारे हरे-भरे खेत
हमारे लहू में नमक की मात्रा बढ़ा दी है
गला दी हैं हमारी कमजोर अस्थियाँ

सिर्फ मौत का समझौता करते हुए
बेच दिया है रोटी का एक टुकड़ा
बेटी के लिए
रोटी का वही टुकड़ा मेरे जीवन का अंतिम उद्देश्य हो गया है

हमने कभी नहीं सोचा प्रेम में नयापन
कभी सौन्दर्यबोध की कविता नहीं रची भाषा में
ऊंट की पीठ पर कविता लिखते हुए
गुलाब के दावे को सुर्ख किया है हमने
हम अपनी बदबूदार गलियों में भटकते रहे हैं दर-दर
करते रहे हैं माई-बाप

हम असंतुष्ट कभी नहीं रहे
धर्म और अहिंसा के पेंडुलम में भकाते हुए तुमने
भेज दिया घर में शमशानी शांति
तुमने हमारा मरणभोज खाया है पीढ़ियों से
जूठन खिलाया फेंका हुआ

नए सूरज का उदय हुआ है पूरब में
हम राजा से मांग रहे हैं अपनी खोई हुई मुहरें

यह अस्मिता या अस्तित्व की लड़ाई भर नहीं
हम टूटी मूर्तियों में खोज रहे हैं अपना इतिहास
हमने भूख को मरने के लिए छोड़ दिया है जलते जंगल भीतर
अब हम रोटी की भीख नहीं मांगेंगे
सच का निवाला छीन खायेंगे

समय दुहरा रहा है खुदको
मेरा भोग हुआ दुःख भोगेंगी तुम्हारी पीढ़िया
शुरुवात हो गई है
तुम खाने लगे हो मरे गोरु का मांस
जिसे तुम गन्दी निगाह से देखते थे
अपना रहे हो वही संस्कृति

आंधिया शांत हो गई हैं
आज हम रेत के ढूहे नहीं हैं
जगते हुए पहाड़ हैं
हमारी कंदराओं से जन्म रहीं है विकास की नदियाँ
हमारे खून के रंगों से खिल रहें हैं बनौधे लाल टेसू
बनाश बिखर रहें हैं बेटी के सपनों भीतर

देखना एक दिन परिंदे फडफड़ायेंगे अपने पंख
आकाशवाणी होगी
तुम विजयी हुए हो पार्थ!
क्या तुमने कभी सोचा है
सूखे तपे पहाड़ों का दुःख