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तुम्हारा गीत / भारतेन्दु प्रताप सिंह

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मैं कैसे कह दूँ
कि जंगल में लगी आग
में झुलसे हिरनों को
दौड़ना
और जली चिड़ियों को
उड़ना
नहीं आता था,
तब जब कि
हरी-मखमली घास
पर गिरते अंगारे
और पेड़ों की फुनगियों में बुने-बनाए
घोसलों में लपलपाती लपटों से ही
लड़ने का नाम
जंगल की तरफदारी है।
दिनों-दिनों तक जलता जंगल
आग बुझने पर भी सुलगता है
और कहते हैं, इसीलिए
जंगल दिन में गाता है
चिड़ियों के गीत
पेड़ों की शाखों पर, झूल-झूल कर
और रात को दौड़ता है
हवाओं के साथ
मचल-मचल कर सरसराता हुआ
घास भरे मैदान॥
मैं कैसे कह दूँ
कि गर्मी की सूखती नदी
की तलहटी के
मटमैले पानी को
बहना नहीं आता या
नहीं आता उसे लहरें बनना,
तब जब कि
ग्लैशियरों से फिसलकर
पहाड़ी चट्टानों को पीछे छोड़ते
झरनों की फुहार और
झीलों की कलकल को
देकर अपना रंग रूप,
नदी नहीं जाती वापस
अपने पिछले रस्ते,
बेशक इसी का नाम है-
अविरल, निर्मल उज्ज्वल
बूंदों की पहरेदारी।

मैं कैसे रोक लूँ
तुम्हें–लड़ने से
मशविरा दूँ तुम्हें
हंसते रहने और आराम का,
जब कि भुतही–कोठी
रोज की रोज
सरकती आ रही हो
बस्ती के पास।
हर रात–ठीक आधी रात,
चरमराते लगते हों भारी भरकम
उसके किवाड़,
चीखते हों चमगादड़ और
बिलाव–आती हो
बिलखती-रोती
अनवरत आवाज के बीच
कांपती गुर्राहट।
मैं नहीं जानता, तुम सरीखा कोई
वह या मैं, लड़ रहा हो, गुर्राहट हो
अनवरत, अव्यक्त अनाम।
हमें आकाश ने बताया
कि भुतही कोठी का चक्रव्यूह
तोड़ना तुम्हें आता है कि
तुम शाश्वत हो,
पर मैं नहीं जानता कि
तुम अर्जुन हो या अभिमन्यु॥