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तुम्हारा होना / सतीश कुमार सिंह

क्वार की पकी धूप में
टहकार लगाते
टिटही चिरई के स्वर से
तुम्हारा कोई वास्ता नहीं

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता तुम्हें
सूखे में फटी
धरती की दरदराई छाती को देखकर

तुम्हें कुछ नहीं लेना देना
फूलों पर धूप में चमकते
ओस कणों के सौंदर्य से

तुम नहीं होते आहत
बेवजह हलाक़ हुए
औरतों और बच्चों के
कटे-फटे नंगे जिस्म देखकर

गरजते मेघों की तड़प
तुम्हारे लिए
बस प्रकृति की एक घटना है
डाल पर भीगे बदन
सिहरती अकेली चिड़िया को देख
लरजते नहीं तुम्हारे प्राण

तुम तो हो निर्विकार संत
बस माया है यह दुनिया
तुम्हारे लिए
कोई वास्ता नहीं तुम्हारा
इन सांसारिक दैहिक, दैविक घटनाक्रमों से

तुमने साधा है
आखिर निर्लिप्तता को
इतने जतन से
क्या होगा उस साधना का
बोलो तो?

जिस नैसर्गिक शक्ति ने दी तुम्हें
सब कुछ महसूसने की क्षमता
हँसने रोने की आजादी
उसके ही खिलाफ चले गये
मेरे महामानव!

याद रखना
इन सबसे नहीं
जब तुम्हारा कोई सरोकार
तो पृथ्वी पर तुम्हारा होना
कोई मायने नहीं रखता
ओ निरपेक्ष देवदूत!